चीनी चिंतक कन्फ्यूशियस का कहना था कि जिसने पृथ्वी का भ्रमण नही किया उसका जीवन उस पाठक जैसा है जिसने पुस्तक का केवल एक ही पृष्ठ पढ़ा. अब हिंदी का विषय और चीन से आरम्भ? क्यों न हो क्यूंकि सत्य है - वसुधैव कुटुम्बकम! भाषा नदी की तरह बहती है तो बनती है. रुक जाये, घुट जाये तो विलुप्त और मिथिक सरस्वती रह जाती है. भ्रमण और पर्यटन प्रकृतिका नियम है - जो परिवर्तन भी कहलाता है.
पाठक से अनुरोध है कि चौंके नहीं इस विचार से कि हिंदी तो कभी कहीं गयी ही नही, क्यूंकि भारत इतना संपन्न समृद्ध देश रहा कि यहाँ का वासी व्यापार केअतिरिक्त किसी प्रयोजन से जन्मभूमि से हिला नही. भारत ने न तो धर्म के प्रचार का बीड़ा उठाया, न पर्यटन की इच्छा की. तो फिर पर्यटन और हिंदी के प्रसार की प्रासंगिकता और आवश्यकता क्या? ठीक इन्ही कारणों से यह विषय उभरता है. एक ऐसी भाषा जो कभी कहीं गयी नही और जो आया उसको स्व में स्थान दिया, वह भाषा यदिअपना अस्तित्व खोती दिखे तो यह केवल भारत की चिंता नहीं बल्कि किसी भी भाषा प्रेमी की चिंता है. सभ्यता अब वहां आ खड़ी हुई है जहाँ प्रभुत्व स्थापित करने के लिए भाषा के हनन की आवश्यकता नहीं रह गयी.
सिन्धु भूमि 'भारत' के उत्तरी प्रदेशों में व्याप्त भाषा - सिंधु नदी के अपभ्रंश रूप से - हिंदी कहलायी. ऐतिहासिक, राजनीतिक एवं समकालीन परिस्थितियों के कारण देव भाषा 'संस्कृत' केवल अपनी देवनागरी लिपि में ही मुखर हुई - परन्तु इसके शब्द समयानुसार रचते गए और शैली जनमानस में बसती गई. पर्यटकों, जिज्ञासुओं एवं आक्रमणकारियों - सब ही के मिले जुले योगदान से हिंदी का विकास हुआ. भारत वर्ष की सहिष्णुता सर्व-व्यापी है, और इसका एक उदाहरण हिंदी भी है जो कदाचित नियम-निष्ठ न कहला सका किन्तु कंठस्थता और आत्म-सात होने का गौरव पा ही लिया.
किन्तु विगत तीन शताब्दियों में साम्राज्यवाद और उपनिवेशवाद के चलते विश्व भर की कई भाषाएँ और संस्कृतियाँ चोटिल हुईं - हिंदी भी उनमें से एक है. भारत के सन्दर्भ में देखें तो उत्तरी प्रदेशों में बोली जाने के कारण हिंदी सदा तरल रही. बार बार होने वाले आक्रमणों से जहाँ हिंदी समृद्ध हुई, वहीँ अपनी कोई निष्ठता भी न बना सकी. उत्तरी भारत की जनसँख्या चूँकि मिश्रित-रक्त वाली रही इसलिए भाषा के प्रति कट्टरता का दृष्टिकोण न रख सकी. हिंदी एक साझी-बांटी खिचड़ी रही जिसको समय-समय पर बघार कर और भी स्वादिष्ट बनाया जाता रहा. इस विचार से कभी कोई स्वाभिमान आहात नहीं हुए और शायद इसलिए हिंदी को राष्ट्रभाषा के जैसा गौरव प्राप्त हुआ क्यूंकि यह वो एक भाषा थी जो समावेशन के सिद्धांत पर टिकी थी न की अद्वितीयता और व्यतिरेक के.
एक नज़र यदि हिंदी के समीपवर्ती इतिहास पे डालें तो हिंदी की आज की स्थिति कुछ स्पष्ट होतीहै. अट्ठारहवीं शताब्दी में ब्रिटिश आगमन के साथ हिंदी और हिंदुस्तान दोनों की किताब में एक नए पृष्ठ का पलटना हुआ. अपनी कुशाग्र बुद्धि, कूटनीति और दूरदर्शिता के चलते अंग्रेज़ व्यापारी पहले शोषक और फिर शासक में परिवर्तित हुए. दो सौ वर्ष तक के स्थायी प्रभाव में हिंदी का जो हनन हुआ उस का सबसे बड़ा रूप ये रहा कि हिंदी भाषी को एक ब्रेन-वाश प्रणाली से निज भाषा में अपमान अनुभव होने लगा. अंग्रेजी कुलीनता की पहचान बन गयी. संस्कृत यूँ ही खुदगर्ज़ी के चलते किलाबंद थी, और हिंदी - ब्रिटिश शासन के अंतके बावजूद - एक लुप्तप्राय, गतकालिक भाषा बन जाने की स्थिति में आने लगी. हिंदी का लेखक और पाठक होना गौरव का नहीं हीनता का पर्याय समझा गया. भारतीय लेखक अंग्रेजी में लिख कर अंतरराष्ट्रीय ख्याति की चाह में चल निकला. एक नीति-बद्ध तरीके से हिंदी हाशिये पर आ गयी.
फिर किस तरह हिंदी बची रही और पनपी और क्या हो की ये मधुर-बेल सूखने न पाये? और क्या हैं वे क्षेत्र जहाँ हिंदी को चुनौती का सामना करना पड़ता है?
हिंदी अन्य भाषाओं के विपरीत वैश्विक समावेशिता की भाषा है, यह हिंदी का एक गुण है. तरलता और सहजता, हिंदी लचीली भी है जो इसे अनुकूलनशीलता और सुग्राह्यता का गुण प्रदान करते हैं. हिंदी वह एकमात्र भाषा है जो विश्व को भारत से एक सहज रूप में परिचित कराती है. कश्मीर से कन्याकुमारी तक और विस्तृतहिन्द महासागर प्रायद्वीप में - पाकिस्तान से लेकर बांग्लादेश तक - भिन्न भिन्न काष्ठाओं में समझी और बोलीजाती है। कई भाषाओं के सम्मिश्रण से बनी ये भाषा किसी भी अन्य भाषा से बहिष्करण का नहीं अपितु मैत्री का भाव रखती है.
हिंदी के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती वही है जो किसी भी अन्य भाषा के सामने - अंग्रेजी की व्यापकता औरअंग्रेजी से जुड़ी अनुपयुक्त अहमन्यता. किन्तु सुसमाचार ये है कि बदलते समय और सभ्यता के चलते विश्व भर में विश्व-भाषाओं के प्रति दृष्टिकोण बदला है और मनुष्य ने ये समझ लिया है कि विस्तृतता और विविधता ही सभ्यता के अनुभव को समृद्ध कर सकती है.
हिंदी को भारतीय उपमहाद्वीप के बाहर ले जाने का सबसे बड़ा श्रेय जाता है हिंदी फिल्म उद्योग को. भारत से बाहर जाने वाले यात्री पहले भी थे किन्तु प्रयोजन अन्य होने के कारण हिंदी के प्रसार केउद्देश्य गतिशील नही रहा. पृथ्वी पर मनुष्य की अभिव्यक्ति औरअनुभव में साझेदारी के लिए भाषाओं का आदान प्रदान ज़रूरी है. भारत को समझने के लिए भारत की भाषाओं से दोस्ती जरूरी है. मूल अभिनन्दन से आगे बढ़कर अपनत्व की मांग है आज हिंदी को. जिस कार्य को एक किक स्टार्ट दिया फिल्मों ने उसे व्यंजन और वस्त्रादि ने आगे बढ़ाया. भारतीय व्यंजन, वस्त्र एवं हस्तशिल्प मूकभाषा बने और समय के साथ अपने नैसर्गिक नामों से जाने जाने लगे न कि एक कच्ची पक्की अंग्रेजी व्याख्या से. अब भारत के प्रति न केवल जिज्ञासा है बल्कि एक आदर भाव भी है.
योग से लेकर भोग तक भारत की अद्वितीयता औरआश्चर्यजनकता पृथ्वी के सभी कोनों में जा पहुंची है. भारत किसी भी विदेशी की ड्रीम डेस्टिनेशन यानी अभीप्सित गंतव्य स्थान है. १९९७ में जहाँ भारत में विदेशी पर्यटकों की संख्या २. ३ मिलियन थी वही २०१९में बढ़कर १७ मिलियन हो गयी. ज़ाहिर है की भारत में रुझान बढ़ रहा है. समय चक्र यूँ पलटा है कि विदेशी पर्यटक अब अंग्रेजी अनुवाद से संतुष्ट नहीं बल्कि प्रत्यक्ष अनुभव की छाँव में हिंदी का एक अध्ययन कर के आना चाहता है. इस मांग को देखते हुए न केवल भारत में बल्कि विदेशों में भी हिंदी के क्रैश कोर्स उपलब्ध हैं. पर्यटक चाहे अध्यात्म की खोज में भारतोन्मुख हुआ हो या फिर संस्कृति के अनुपान के लिए - सभी अपने अनुभव को भाषाई सम्पन्नता देना चाहते हैं. एक नज़र अगर भारत में आने वाले पर्यटकों पर डालें तो ये तीन श्रेणियों में विभक्त हैं - विशुद्ध पर्यटक, विद्यार्थी और कामकाजी. इन सभी को पर्यटक की श्रेणी में इसलिए देखना चाहिए क्यूंकि रहने रुकने की अवधि और प्रयोजन में अंतर होने के अलावा अन्य लक्षण एक जैसे हैं. विशुद्ध पर्यटक जहाँ अपनी उत्सुकता और उमंग से पहचाना जाता है वहीँ विद्यार्थी और कामकाज के सिलसिले में आये विदेशी पर्यटक बहु-आयामी रूप से देश, देश-वासी, संस्कृति और भाषा को समझने की विलक्षणता से युक्त हैं. लम्बे समय तक भारत में रहने वाले विदेशी हिंदी के बिना पंगु अनुभव करते हैं और इसीलिए समय समय पर भाषा और संस्कृति को समझने के लिए प्रयासरत रहते हैं.
लघुकालिक पर्यटक जहाँ क्रैश कोर्स लेता है वहीँ विद्यार्थियों में हिंदी का एक ऐच्छिक विषय पढ़ने के प्रति रुझान बढ़ रहा है. भारतीय सिनेमा और समकालीन समाजको समझने-समझाने के लिए हिंदी से दोस्ती जरूरी हो गयी है. विदेशी टिप्पणीकार या यात्रा संस्मरण लिखने वाले निरंतर स्थानिक शब्दों को तत्सम प्रयुक्त करते पाये जा रहे हैं. विश्ववासी अपनी हिंदी की समझ से स्वयं को गौरवान्वित अनुभव करता है. वाणिज्यऔर उद्योग के क्षेत्रों में चीन के बाद भारत की बारी आती है. एक विशाल युवा, प्रशिक्षित और हस्त सिद्ध जनसमुदाय भारत की विशेषता है और इस जनसमूह को समाहित करने के लिए विश्व समुदाय को हिंदी को अपनाना ही होगा. धरतीपर सभ्यता की साझी धरोहर में से भारतीय अंश को पाने के लिए हिंदी की समझ जरूरी है.
पर्यटन के दूसरे सिरे पे हैभारतीय पर्यटक जो देश के बाहर जाता है और अपनी संस्कृति और भाषा की सुगंध अपने पीछे लुटाता बढ़ता चला जाता है. १९वीं और २०वीं शताब्दी में जहाँ भारत से कुछ एक कुलीन, अभिजात्य ही विदेश भ्रमण को जाते थे वही स्वतंत्रता के बाद सँख्या बढ़ने लगी. उच्च शिक्षा और कामकाज की तलाश में भारतीय पर्यटक और अप्रवासी दोनों ही हिंदी के सांयोगिक प्रचार का कारण बने। सैटेलाइटऔर डिजिटल संचार के आगमन से पूरा मानव-अनुभव बदल गया. भूगोलीकरण और उत्तर-औद्योगिक काल दोनों ने ही भारतीय नागरिक के हाथों मेंअतिरिक्त चल पूँजी थमा दी. जहाँ पहले हम एक तृतीय श्रेणी के देश थे और बस किसी तरह दो जून की रोटी कमा पाते थे, वहीँ अब द ग्रेट ग्लोबल इंडियन का उद्भव हुआ और हम न केवल जीवन-यापन बल्कि मनोरंजन भी करने की स्थिति में आये. मौज-मस्ती के लिए घूमने वाले भारतीय ने दुनिया के दुर्गम्य स्थानों पर भी अपनी छाप छोड़नी शुरू की. संसार का एक बड़ा हिस्सा जो शायद भारत के बारे में अनजान था, उसको समझ आया कि भारतीय पर्यटक का अर्थ है आय का उत्तम स्त्रोत। बाजारवाद के इस दौर में ग्राहक भगवान है और ग्राहक को समझने के लिए ग्राहक की ज़बान आना कारगर होता है. भारतीय पर्यटक के लिए जहाँ शुद्ध शाकाहारी भोजन बनाने लगा विश्व का मांसाहारी क्षेत्र वहीं टूरिस्ट गाइड्स भी बहुतायत संख्या में उपजने लगे. अब कोई इक्का दुक्का बजट पर्यटक नहीं है भारतीय - अब हम मनोरंजनऔर जिज्ञासा के लिए घूमते हैं। जहाँ पहले एक या दो एशियाई नज़रआते थे वहां अब दुनिया भर में भारतीय बिखरे पड़े हैं. व्यवस्थितयात्री समूह अब जैसे एक आम बात हैं. और केवल-महिलाएं, केवल शाकाहारी और केवल हनीमून युगल जैसे विशेष यात्री समूह का अर्थ है बड़ा करोबार. और इस बड़े पर्यटक दल की मांगों को पूरा करने के लिए संसार हिंदी को अपना रहा है.
विश्व मानचित्र पर भारत अब सपेरों और हाथियों की रहस्यमयी नगरी नही. जहाँ एक ओर यातायात ने संसार को सिकोड़ दिया था वहीँ तकनीक ने उसे एक गीगाबाइट में निचोड़ लिया है. एक बटन की दाब पर जहाँ दुनिया आपकी उँगलियों के सिरे पर है. वस्तुतः वहां परिवर्तन और अनुकूलन को अब उतना समय नहीं लगता जितना पहले. सोशल मीडिया की दुनिया में संसार भर के विविध लोग अपनी-अपनी संस्कृति को बिखेरते हैं और दूसरे की जीवन शैली को अपना बनाकर सौहार्द और सहिष्णुता का प्रमाण देते हैं. ऐसे में हिंदी का प्रसार न केवल प्रत्यक्ष पर्यटक करते हैं बल्कि डिजिटल यात्री का भी बड़ा योगदान है. नित नए जुड़ते मित्रों को अपना देश अपनी भाषा समझाना स्वाभाविक इच्छा है. इस ज़रुरत को देखते हुए लिपि रूपांतरण गूगल की विशेष भेंट है.
यात्रियों के साथ एक अच्छी बात ये है कि आज का पर्यटक अपने साथ गैजेट्स लिए फिरता है. हिंदी फिल्में, गीत, इत्यादि सभी एक टच पे उपलब्ध हैं. विदेशों में अब जब भारतीय पर्यटक विचारों और अनुभवों का आदान प्रदान करता है तो उस आदान प्रदान को एक सजीवता देती है टेक्नोलॉजी. टेक्नोलॉजी ने जो रूचि और जिज्ञासा के बीच का फैसला था उसको मिटा दिया है. जहाँ इंटरनेट के माध्यम से आराम कुर्सी पर पर्यटन, वहीँ वास्तविक सशरीर यात्रा अब भी अपने स्थान से च्युत नही. मनुष्य की पञ्च-ऐन्द्रिक अनुभव की लालसा उसे भौतिक अनुभव की ओर ले जाती है.
ऐसे में पर्यटन और हिंदी के प्रसार में पारस्परिक सम्बन्ध को हलके में नहीं लेना चाहिए. १९७५ में शुरू किये गए विश्व हिंदी सम्मेलन का आयोजन १९८४ के बाद भारत में हो रहा है. हिंदी को अब किसी तरह के प्रचार की नही, एक रवानगी हवाओं की ज़रुरत है और इसमें अन्य सभी माध्यमों के साथ साथ पर्यटनकी अहम भूमिका रहेगी.
आने वाले भविष्य में एशिया आर्थिक अवसाद से बचा रहने की स्थिति में नज़र आता है. इसका सीधा अर्थ विदेशी पर्यटक भले ही कम हो जाएं, किन्तु भारतीय अपनी भाषा और संस्कृति के साथ ये धरती नापेगा. ये एक बढ़िया अवसर है हिंदी को सुनहरी युग में ले जाने के लिए. कभी जिस प्रकार संस्कृत के शब्द त्रासदी, भ्रातृ, मातृ आदि संसार भर के शब्दों का आधार बने - एक बार फिर उसी तरह हिंदी का परचम यात्री और पर्यटक लहरायेगा. विश्व भर में फैले हिंदी भाषी सुनिश्चित करेंगे कि उनकी पहचान उनकी ज़बान की अनुगूँज मुखरित हो.
सरकार और भाषा प्रेमी इसमें योगदान दे सकते हैं. देश की नीतियां हिंदी के प्रसार को पर्यटन के बिंदु से बढ़ावा देतो बहुत संभावनाएं उत्पन्न होती हैं. पर्यटक औरअल्पकालिक कामगार भारत से हिंदी प्रशिक्षण से जुडी शिक्षा लेकर जाएं तो न केवल इस से हिंदी का प्रसार होगा बल्कि एकआय का साधन भी है विदेश में जाने वाले भारतीय के लिए. पर्यटन से जुड़ी सामग्री पर हिंदी केमूल पाठ और सिद्धांत अंकित किये जा सकते हैं. विदेशी पर्यटकों को विशेष छूट दी जा सकती है यदि वे अपने भारत भ्रमण के साथ हिंदी में रूचि और अध्ययन लिए नामांकन कराएं. टूरिस्ट गाइड भी इसमें योगदान देने की स्थितिमें होता है. विदेशी पर्यटकों को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए हिंदी में अपना अनुभवदर्ज करने के लिए. क्रैश कोर्स और इनामी प्रतियोगिताएं इसमें रूचि और भागीदारी को बढ़ावा देंगी। ये भी ज़रूरीहै पर्यटक अपने साथ हिंदी को लेकर चले - हिन्दू को नही. हिंदी एक साझी ज़बान है, इसे धर्म से जोड़ना न केवल सांस्कृतिक हानि करेगा बल्कि पर्यटन को भी फायदा नहीं मिलेगा. हिंदी में समाहित करने की क्षमता है. पर्यटन एक ऐसा माध्यम है जहाँ समाहितता का चरमोत्कर्ष देखने को मिलता है. भारत के विभिन्न धर्मों समुदायों की बात को हिंदी में लेकर अगर हम दुनिया से मुखातिब होंगे तो निश्चित ही ये तरल भाषा वाष्प और श्वास की तरह व्योम-वासिनी बन सकती हैऔर विश्व-दृष्टि में परिवर्तित हो सकती है. हिन्दी की सफलता केवल व्यावसायिक औरऔपनिवेशिक नहीं - हिन्दी दुनिया भर के जन मानस की आवाज़ बन सकती है. अतीत का आक्रमणकारी विजेता और आधुनिक समय का व्यापारी ये सब उत्तर आधुनिक युग में पर्यटक में समाहित हो गए हैं. संसार इस बात को समझ रहा है कि सबकी प्रगति और सुख में निज की प्रगति है. वसुधैव कुटुम्बकम एक बार फिर मुखरित होने का समय आया है - ऐसे में भारत की हिंदी इस नारे को चरितार्थ कर सकती है. अतीत के अनुभव और वर्तमान के अवसर हिंदी को अनिवार्य और प्रिय दोनों बनाते हैं.

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